हिंदी उपन्यास की नई आवाज़, असहमति और सृजन पर हुई चर्चा



अलीगढ़ : अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया, जिसका विषय था, ‘समकालीन हिंदी उपन्यास : समय, समाज और संस्कृति में असहमति की आवाज़’।

अंग्रेजी में पढ़ें : Voice of Hindi Novels: Discussion on Dissent and Creation

फ़ैकल्टी ऑफ आर्ट्स लाउंज में हुए इस आयोजन में देशभर के प्रसिद्ध विद्वान और लेखक शामिल हुए। चर्चा का विषय यह रहा कि आज का हिंदी उपन्यास कैसे समाज की आत्मा को टटोलते हुए एक जागरूक प्रतिरोध की आवाज़ बन गया है।

सेमिनार के संयोजक प्रो शंभू नाथ तिवारी ने कहा कि हर रचना अपने समय की गवाही देती है। अगर हम समकालीनता को समझना चाहते हैं, तो इतिहास और स्मृति को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं।

विभागाध्यक्ष और सेमिनार निदेशक प्रो तसनीम सुहैल ने स्वागत भाषण में कहा कि आज का हिंदी उपन्यास सामाजिक यथार्थ और उत्तर-आधुनिक विस्थापन के बीच पुल बन रहा है, जहां व्यक्तिगत पीड़ा और सामूहिक असहमति एक साथ चलती हैं।

पूर्व कुलपति प्रो मोहम्मद गुलरेज़ ने अपने संबोधन में कहा कि समकालीन उपन्यास विद्रोह नहीं, बल्कि चेतना का जागरण है। उन्होंने हिंदी में प्रवासी लेखन और मैजिकल रियलिज़्म की कमी पर अफसोस जताया और कहा कि रचनाकारों को नए प्रयोगों से डरना नहीं चाहिए।

मुख्य वक्ता प्रो रोहिणी अग्रवाल, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक, ने कहा कि समय, समाज और संस्कृति शक्ति-संरचनाएं हैं। इन्हें समझे बिना समकालीनता को नहीं समझा जा सकता है। उन्होंने कहा, “कथा-रस तक पहुंचने के लिए पहले बुद्धि-रस तक पहुँचना ज़रूरी है।” उन्होंने भारतीय आध्यात्मिक दर्शन, आस्था और सत्ता की राजनीति के जटिल रिश्तों पर भी विस्तार से बात की।

प्रो श्रद्धा सिंह, बीएचयू, ने अपने विशेष वक्तव्य में बताया कि हिंदी में उपन्यास लेखन और स्त्री लेखन लगभग साथ-साथ विकसित हुए। उन्होंने मन्नू भंडारी की ‘आपका बंटी’, मृदुला गर्ग की ‘चितकोबरा’, कृष्णा सोबती की ‘ज़िंदगीनामा’ और गीतांजलि श्री की ‘ए लड़की’ जैसी रचनाओं का ज़िक्र किया और कहा कि आज की महिला लेखिकाएं पर्यावरण, राजनीति और अस्तित्व जैसे गंभीर मुद्दों को गहराई से छू रही हैं।

समापन सत्र में प्रो टीएन सतीशन, डीन, फ़ैकल्टी ऑफ आर्ट्स, ने कहा कि साहित्य मनोरंजन नहीं, समाज की सच्चाई उजागर करने का माध्यम है। समकालीन उपन्यास सांस्कृतिक प्रतिरोध का प्रतीक है, जिसने इंसान के नैतिक विवेक को फिर से जगाया है।

वर्तमान हिंदी साहित्य की दिशा पर साहित्य प्रेमियों ने कहा कि आज का हिंदी उपन्यास प्रेमचंद के यथार्थवाद से आगे निकल कर कई आवाज़ों में बोलता है। उदय प्रकाश, निर्मल वर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, विनोद कुमार शुक्ल, अलका सरावगी, अनामिका, गीतांजलि श्री और यशपाल शर्मा जैसे लेखकों ने हिंदी कथा में भाषा और विचार दोनों स्तरों पर नई ताजगी दी है।

दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो डॉ मांडवी के मुताबिक, गीतांजलि श्री का ‘रेत समाधि’ हिंदी कथा को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाला मील का पत्थर साबित हुआ। वहीं, विनोद कुमार शुक्ल के ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ जैसी कृतियों में यथार्थ और स्वप्न का अद्भुत मेल है। ये रचनाएं समाज में फैलते असहिष्णु माहौल, जाति और लिंग की असमानता, और तेज़ी से बदलते शहरी जीवन की बेचैनी को बड़ी बारीकी से पकड़ती हैं। आज के उपन्यास में व्यक्तिगत अनुभव ही राजनीतिक सत्य बन गया है।

टिप्पणीकार प्रो पारस नाथ चौधरी कहते हैं, "फिर भी अकादमियों के गलियारों में हाल के दिनों में एक साझा चिंता उभरी है। हिंदी साहित्य से हंसी और व्यंग्य जैसे गायब हो गए हैं। कभी हरीशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, और केपी सक्सेना ने जिस तीखे व्यंग्य से समाज को आईना दिखाया था, आज वैसी रचनात्मक चपलता कम दिखती है।"

दक्षिण भारत की साहित्य प्रेमी मुक्ता गुप्ता कहती हैं, "आज का लेखन गंभीर तो है, पर कहीं न कहीं मुस्कान और हल्के व्यंग्य की मानवीय गर्मी खो गई है। इस दौर में ‘ह्यूमर टाइम्स’ जैसे पत्र इस विरासत को जीवित रखे हुए हैं। यह पत्र आज भी राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर चुटीले, बौद्धिक व्यंग्य के माध्यम से लोकतांत्रिक सोच को ज़िंदा रखता है। इसकी भूमिका साहित्यिक दुनिया के लिए भी प्रेरक है।"

एएमयू का यह सेमिनार मात्र अकादमिक विमर्श नहीं था, बल्कि हिंदी साहित्य की आत्मा की पड़ताल भी थी। आज का हिंदी उपन्यास असहमति की आवाज़ तो बन गया है, लेकिन उसे अनुवाद, वैश्विक पहचान और हंसी की खोई विरासत जैसी चुनौतियों से भी जूझना होगा। साहित्य का मकसद सिर्फ़ यथार्थ दर्ज करना नहीं, बल्कि उसके बीच मुस्कुराने की हिम्मत भी देना है। जैसे किसी कवि ने कहा था “जो हंस सकता है, वही सच बोल सकता है।”




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